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कहानी संग्रह

विदा होती बेटियाँ

ओम प्रकाश


अनुक्रम

क्रम सं.

नाम

पृष्ठ संख्या

1

हे प्रभु

 

2

पिता

 

3

शहर

 

4

विदा होती बेटियाँ

 

5

सुशांत

 

6

प्रेम

 

7

मज़दूर

 

8

उम्मीद है

 

9

सबसे कठिन है

 

10

पिता के सपने

 

11

प्रेम करता हूँ मैं

 

12

बोझिल पंख

 

13

मनुष्यत्व

 

14

माँ का अकेलापन

 

15

शब्द

 

16

आत्महंता

 

17

प्रेम-पत्र

 

18

जे.एन.यू.में प्रेम

 

19

कविता

 

20

एक अकेली स्त्री होना

 

21

बुज़दिली

 

22

एक कवि का जाना

 

23

आईना

 

24

नन्हीं सी चिड़िया

 

25

वक़्त लगता है

 

26

रिश्ते नहीं मरते

 

27

ताकि जलती रहे चिता

 

28

अछूत

 

29

अपाहिज मानसिकता

 

30

सब तुम्हें देता हूँ

 

31

अपने-अपने हिस्से की धूप

 

32

जब तुम लिख रहे थे कविता

 

33

मैं छुपाता हूँ अपने भीतर प्यार

 

34

अगर तुम मुझे अपना सको

 

35

हिंदी हूँ मैं

 

 

हे प्रभु

हे प्रभु
शक्ति देना
तो सहनशक्ति भी
वार सह सकूँ

अपनों का

परायों का भी|


हे प्रभु

क्रोध के साथ
प्रेम भी देना

यह विवेक भी कि

अन्याय के ख़िलाफ़

जीभ न अकड़े|

हे प्रभु

रावणी दंभ से लड़ते-लड़ते

रावण बनने से बचा सकूँ

ख़ुद को

और प्रेम

पत्थर बनने से

बचाए रखे मुझे |


हे प्रभु

क्षमा करने की

शक्ति देना

और यह भी कि

क्षमा कर सकूँ
ख़ुद को भी
इस असहनीय समय में |

हे प्रभु

ऐसे वक़्त में

जबकि झूठ को झूठ बोलना भी
मुनासिब नहीं
सच की सौदेबाजी में
बिकने से बचा सकूँ

ख़ुद को

और सच को सच कहने की

क़ाबिलियत बची रहे मुझमें |

हे प्रभु

आँखों में सपने देना

तो उसे पूर्ण करने का साहस भी देना

ताकि बोझिल पंख लिए

विदा होने से बचा सकूँ ख़ुद को |

हे प्रभु

यह जानते हुए कि
अँधेरे और उजाले में
बहुत फ़र्क़ है
अँधेरे को

उजाला साबित करने के गुनाह से

बचा सकूँ ख़ुद को |

हे प्रभु

इस ग़ुरूर में कि
आसमान हो गया हूँ मैं

अगर गिरूँ
तो अपनी नज़रों में भी

गिरने से बचा सकूँ ख़ुद को |

हे प्रभु

ऐसे वक़्त में

जबकि मुहब्बत करना

ख़ुद का ही इम्तिहान लेना है

मैं मुहब्बत कर सकूँ

हज़ार नफ़रतों के बाद भी |

हे प्रभु

कहने को तो
यह जीवन एक खेल ही है
जीवन के इस खेल में
ख़ुद को हारकर जीतने से
कहीं बेहतर है
ख़ुद को जीत कर

हार जाऊँ मैं

जीती हुई बाज़ी

और बिना किसी अफ़सोस के

ले सकूँ मैं

आख़िरी साँस|

 

पिता

पिता को

बचपन से महसूस करते हुए
उन्हें करीब से देखते-समझते हुए
कई एक वर्ष बीत गए
और अब

अनथक पिता
वृद्ध हो गए|

पिता
अब और भी संजीदगी से
पढ़ाने लगे हैं बच्चों को
ज़िंदगी का पाठ
पिता को लगने लगा है कि
बच्चों को जीने की कला समझाना
ख़ुद पुनर्जीवित हो जाना है|

पिता
बच्चों की मृदुल हँसी में
पाने लगे हैं

ख़ुद की मुस्कराहट
बच्चों को आशीष देते हुए
पिता भावुक होने लगे हैं
असीम प्रेम लुटाने लगे हैं अक्सर|

पिता
अब प्रगाढ़ संबंधों में
अनवरत खोजने लगे हैं

अगाध प्रेम|

पिता
अब आत्मीय जनों के
शब्दों की चोट से
आहत होने लगे हैं
अंतहीन मन की गहराइयों तक
दर्द महसूस करने लगे हैं|

पिता
अब व्याकुल होने लगे हैं
हर एक त्योहार पर

अपने सगे-संबंधियों का
इंतज़ार करने लगे हैं|

पिता
घर के टूटने के सवालों पर
अंदर ही अंदर बिखरने लगे हैं
ज़िंदगी की इस बेहिसाब भागती
आपाधापी को ही
परिवार के टूटने की वज़ह समझने लगे हैं|

पिता
अब बात-बात पर
रहने लगे हैं उदास
रात भर चिंता में डूबने लगे हैं
पिता अब

किसी अनहोनी की
आशंका में जीने लगे हैं|

पिता
अब परिवार की ख़ुशहाली के लिए
देवी-देवताओं से मनौती माँगने लगे हैं
मन ही मन मंत्र बुदबुदाने लगे हैं
पिता की आँखों में
अब अधूरे सपने सूखने लगे हैं|

पिता
अपनी डायरी में
दुःख-दर्द लिखने लगे हैं
मन की व्यथाएँ
माँ संग बाँटने लगे हैं
पिता अब

अनगिनत बीमारियों से जूझने लगे हैं|

अब मैं
पिता की असीम वेदना को
शिद्दत से महसूस करने लगा हूँ
पिता की जीवन यात्रा का

सहभागी बनने लगा हूँ

पिता के श्री चरणों को

अश्रु-श्रद्धा पूरित

जल से सींचने लगा हूँ|

 

शहर

आँखों में दफ़न होते

ख़्वाहिशों के साथ
निकलता हूँ हर दिन
चश्मा पोंछ देखता हूँ
शहर के धुंधलापन को
शहर की कतारों में

उम्मीदों को खोकर
थके पाँव वापस लौट आता हूँ|


गाँव लौटने के वादे के साथ कभी
थामा था मैंने इस शहर का दामन
इस शहर ने छीन लिया है

मेरा वक़्त भी
इंतज़ार करते माता-पिता के साथ ही
खो दिया है मैंने

अपना गाँव-घर भी|

शहर की इस बंद गली में
हवाएँ

मेरे कमरे की खिड़कियाँ नहीं खोलतीं|


बंद दरवाज़ों ने कभी
दूसरों के लिए खुलने की ज़हमत ही नहीं की
चाय की प्यालियों ने कभी
आपस में बात ही नहीं की
हँसी-ठहाकों का कभी
मेरे इन बंद दीवारों से वास्ता ही नहीं पड़ा|

इस शहर ने मेरी सोचने-समझने की
भाषा में भी कर दिया है फ़र्क़
ख़ुद से भी कभी मुक़म्मल बात नहीं की है मैंने
थोड़ी सी दूरी बना कर रखी है

मैंने ख़ुद से भी
ख़ुद को ही ज़िंदा रखने के लिए|

एक दिन ऐसा होगा कि
मेरे कमरे के बंद दरवाजे तोड़ दिए जाएँगे
शोर मचाने लगेंगी खिड़कियाँ
चुप गली बोलने लगेगी
फिर भी मैं उठूँगा नहीं
उठाएँगे मुझे कुछ अनमने कंधे |


जल उठेंगी मेरी ख़्वाहिशें चिता पर
पर आग की लपटों के साथ मैं उठूँगा ज़रूर
राख,हवा,पानी बनकर ही सही
किसी न किसी रूप में
अपने गाँव-घर तक पहुँचूँगा ज़रूर|

 

विदा होती बेटियाँ

विदा हो जाती हैं बेटियाँ
जैसे विदा हो जाती है
आँगन की धूप
सूना हो जाता है

घर-आँगन
चुप हो जाती हैं

मंदिर की घंटियाँ |


पिता निहारते रहते हैं द्वार
माँ सदमे से भर जाती है
विदा होती बेटियाँ
अपने पीछे

बहुत सारा दर्द छोड़ जाती हैं|

विदा होती बेटियाँ
अपने खिलौने के साथ ही
अपना बचपन छोड़ जाती हैं
अपने सपने संदूक में बंद कर जाती हैं
माँ से हर बात मनवाने वाली

बेटियाँ
माँ को ही मनाने लग जाती हैं
अपनी ज़िंदगी की

ज़िम्मेदारियों से बंध जाती हैं|

बेटियाँ

जब लौटती हैं
तो लौटा लाती हैं

ख़ुशियाँ
ले आती हैं ढेर सारा प्यार
और थोड़ा सा वक़्त
थोड़े से वक़्त में

सोए हुए मन को जगा जाती हैं
बेटियाँ

उदास घर को गुलज़ार कर जाती हैं

बेटियाँ |

विदा होती बेटियाँ
आँसुओं से अतीत को सींच जाती हैं
शब्दों की मिठास से

रिश्तों को जोड़ जाती हैं
माता-पिता की आँखों में

जीने का सपना बुन जाती हैं|


विदा होती बेटियाँ
अपने आँचल में आँसू बाँध लेती हैं
अपने आँसू

देवी-देवताओं पर
चढ़ाती वापस चली जाती हैं|

विदा होती बेटियाँ
सामाजिक क्रूरता का भी शिकार हो जाती हैं
उँगलियाँ पकड़कर चलने वाली

बेटियाँ
द्वार पर

पैर का छाप बन कर रह जाती हैं
चूड़ियों-पायल में चहकने वाली बेटियाँ
किसी गुमसुम उदास रात में
चाँद की तरह डूब भी जाती हैं|
 

विदा होती बेटियाँ
कभी-कभी

हमेशा के लिए भी
विदा हो जाती हैं|

 

सुशांत

जब लौट रहे थे लोग
अपने घर
छोड़ रहे थे शहर
पराएपन की ज़मीन से उखड़
अपनेपन की तलाश में
मीलों चल रहे थे
तब तुम भी लौट आते
सुशांत|

तुम्हारा लौटना
उन युवाओं का लौटना होता
जो चाह कर भी

कभी लौट नहीं पाते
अपने घर
अपने सपनों की दुनिया से
समझौता करते-करते
सफ़ेद चादर से ढक लेते हैं
अपना चेहरा
पर अपने घर लौटना
मुनासिब नहीं समझते|

चाहे जो कुछ भी कमाए हों तुमने
अपनी ज़िंदगी खोकर
पर वो चार दोस्त भी तो नहीं कमा सके
जो तुम्हारा हौसला बन
तुम्हारी ज़िंदगी और मौत के बीच
अडिग हो खड़े रह पाते|

तुम्हारी ज़िंदगी के

इन आख़िरी पलों को
दुनिया के लिए भूल जाना
कोई मुश्किल नहीं
पर जो ज़ख़्म तुमने
अपनों को दिया है
वो ज़ख़्म रुलाता ही रहेगा
ताउम्र उन्हें|

अपने घर से
अपनों को ख़ुशी देने की ख़्वाहिश के साथ
जब निकले होगे तुम
तब कहाँ सोचा होगा किसी ने
कि तुम राख बनकर लौटोगे|

सुशांत
यह अपने घर लौटने का दौर है
काश तुमसे सीखकर
लौट आएँ
वो सभी सुशांत
जिनका महानगरों में होना
कोई खास मायने नहीं रखता
मायने रखता है उनका
माँ की आँचल में बैठकर

सुख-चैन की दो रोटी खाना
और अपने घर-परिवार का

अडिग सहारा बनना|

 

प्रेम

ज़िंदगी की तमाम

उदास रातों के बीच
एक दिन ऐसा आएगा
जब तुम्हारी हथेलियों को
अपने हाथों में थामे हुए
मैं कह सकूँगा कि
मैं तुमसे प्रेम करता हूँ|


तुम संग
ज़िंदगी को

ज़िंदगी की तरह जीना चाहता हूँ
इस दुनिया को अब मैं
तुम्हारी निगाहों से देखना चाहता हूँ|

मुद्दतों से इज़हार की चाह लिए
ज़िंदगी से गुज़र रहा हूँ मैं
ज़िंदगी की कही-अनकही

तमाम किस्से
तुम संग बाँटना चाहता हूँ
अतीत की स्मृतियों से
भविष्य को सींचना चाहता हूँ|

तुमसे मिलकर मैं
मैं नहीं रह जाता
दिल के

किसी कोने में प्रेम बोने लगता हूँ
तुमसे मिलकर मैं
मनुष्य होने लगता हूँ|

रोज-रोज की मुलाकातों-बातों
हँसते-मुस्कराते लम्हों के बीच
गुज़रते वक़्त की आँधी में
उजड़ जाऊँ मैं
इससे पहले मैं
तुमसे

प्रेम का इज़हार करना चाहता हूँ|

 

मज़दूर

मैं मज़दूर हूँ

मैं गली,चौक-चौराहा,सड़क
बस से लेकर रेल तक
राशन की दुकान से
राहत की अनगिनत कतार में हूँ
मैं मज़दूर हूँ|

मेरे पाँव दुनिया की तरह कठोर हो गए हैं
और कंधे देश की तरह मज़बूत
जिस पर ढो सकता हूँ मैं

कर्ज का बोझ
बदनामी का दंश लिए चल सकता हूँ मैं
पशुओं की तरह
सैकड़ों मील|

मैं मज़दूर हूँ

मुझ पर तरस खाने वाले
खा जाते हैं अन्न भंडार
देश की भाग्य की तरह
मेरी भी क़िस्मत नहीं बदलती
बदलती है सिर्फ़ तस्वीर
सफ़ेद पन्नों पर
ख़ुशहाल भारत की|

मैं मज़दूर हूँ

मैं अन्न खाकर नहीं
वादे खाकर जीता हूँ
सूखी अँतड़ियों में
देश की इज़्ज़त पचाता हूँ
तिरंगा हाथ में लिए
जनपथ से राजपथ तक
लहूलुहान होता रहता हूँ|

लालकिले की प्राचीर से मैं ही गूँजता हूँ
मैं ही अनसुना रह जाता हूँ संसद में
मेरे ही सपने बेचकर
महलों में उगाई जाती हैं रोटियाँ
मैं ही बासी रोटी की तरह
फेंक दिया जाता हूँ कूड़ेदान में |


झुग्गी-झोपड़ी,मलिन बस्तियों में
मैं ही अपराध की तरह पाया जाता हूँ
मैं ही मतदान में वोट बन निकलता हूँ
मैं ही राजकोषीय घाटे की तरह बढ़ता हूँ
मैं ही देश की साख की तरह गिरता हूँ
खेतों में मैं ही ख़ून से पौधों को सींचता हूँ
मैं ही ज़मीन से उखड़ दर-बदर भटकता हूँ|

मेरे लिए यह देश

और मैं देश के लिए
एक असहनीय पीड़ा हूँ
मैं असहनीय पीड़ा सहकर भी चुप हूँ
मैं मज़दूर हूँ|

 

उम्मीद है

उम्मीद है
एक दिन पहुँच पाऊँगा
अपने घर
दुनिया से बेख़बर हो
कुछ दिन रह पाऊँगा|

उम्मीद है
बेतहाशा भागते-भागते
ख़ुद को गिरने से बचा पाऊँगा
हारे हुए समय में
ख़ुद को जीत पाऊँगा|

उम्मीद है
ख़ुद को समझा पाऊँगा
दुनिया की नासमझी
हज़ार नफ़रतों के बीच
प्यार बचा पाऊँगा|

उम्मीद है
नाउम्मीदी के बीच
अपनी उम्मीद को
नए पंख दे पाऊँगा|

उम्मीद है
सारे शब्दों को मिटाकर
वो एक आख़िरी
शब्द लिख पाऊँगा
जिससे पनप सके
प्रेम|

उम्मीद है
यह सब भी न कर सका
तो अपनी उम्मीदों की गठरी को
विदा कर सकूँगा
ख़ुद के विदा होने से पहले|

 

सबसे कठिन है

सबसे कठिन है

पत्थर दिल होती दुनिया में
प्रेम बचाए रखना
बार-बार छले जाने के बाद भी
विश्वास बचाए रखना|

सबसे कठिन है

सफलता-असफलता के बीच
झूलते जीवन में
जीतने की आस बचाए रखना

तमाम उदासियों के बीच
होंठों पर मुस्कान बचाए रखना|

सबसे कठिन है

बदहवास भागते वक़्त में
अपनों के लिए
थोड़ा सा वक़्त बचाए रखना

ज़िंदगी की धूप में
रिश्तों के लिए

थोड़ी छाँव बचाए रखना

सिर्फ़ मदद के लिए
मदद का हाथ बढ़ाए रखना|


सबसे कठिन है

मान-अपमान-सम्मान के बीच
अपने अंदर

संवेदना बचाए रखना
अपने ही आँखों पर पड़े
चश्मे को उतार कर
ख़ुद को पढ़ने का

साहस बचाए रखना|
 

सबसे कठिन है
ख़ुद की बुलंदियों पर
ख़ुद को गिरने से बचाए रखना

देवता बन जाने के बाद भी
ख़ुद को मनुष्य बनाए रखना|

सबसे कठिन है

कठोर वक़्त में

ख़ुद को सरल बनाए रखना|

 

पिता के सपने

पिता की छाँव में

बेफ़िक्र ज़िंदगी बिताते हुए

सोचा कहाँ था कि

सिर पर साया न हो तो

असमय पतझड़ में

झुलस जाते हैं ख़्वाब|

मुरझा जाते हैं रिश्तों के पेड़

ठूँठ बन जाता है

भरा-पूरा परिवार

जड़े टूट जाती हैं हौसलों की

खुशियाँ सन्नाटों से भर जाती हैं

मोहताज़ हो जाती है ज़िंदगी

आज़ाद होकर भी|

ज़िंदगी की चिलचिलाती धूप में
अब तन्हा ही तप रहा हूँ मैं

वक़्त के बादलों ने जीवन के

उजालों को अँधेरे से भर दिया है|

नन्हें पौधों को जिलाने की जद्दोजेहद में

वक़्त-दर-वक़्त टूटता जा रहा हूँ मैं

अपनी जड़ों को थामने की पुरजोर कोशिश में

अपनी ज़मीन से ही उखड़ता जा रहा हूँ मैं|

आगाह करता रहता हूँ मैं

नन्हें पौधों को

ग़ुमराह हवाओं से

अपनी ज़मीन से उखड़कर

गमले में बस जाने की चाहत से

कुल्हाड़ी से दोस्ती निभाने की ज़िद से

यह जानते हुए भी कि आज़ाद ख़याली में

अक्सर अनसुने रह जाते हैं पिता|

पिता के अधूरे सपने के साथ

अपने घर-आँगन में

नीम के पेड़ की तरह

रह गया हूँ मैं निपट अकेला|

घर की ज़रूरतों ने

बेघर कर दिया है मेरे अपनों को ही

कुछ पौधे आसमान की ऊँचाई की जगह

ज़मीन पर फैलने की चाहत में

बोनसाई बनकर रह गए हैं|

कुछ पौधों ने इंकार कर दिया है

धूप में रहने से और

ख़ुद छाया बनकर रह गए हैं

कुछेक पौधे

अपनी अंतरात्मा को बेचकर

वस्तुओं में तब्दील हो गए हैं

कुछ हतोत्साहित हो गए हैं

साथी पौधों को बढ़ता देखकर|

जीवन के अपने

आख़िरी पड़ाव में

पिता की नसीहतों को

मैं दुहराता रहता हूँ

इस आस में कि

दमघोंटू वातावरण में

दम घुटने से पहले

अपनी ज़मीन पर लौट आएँगे पौधे

और बंजर होते जीवन में

बारिश की बौछार की तरह

बो पाऊँगा मैं

पिता के सपने|

 

प्रेम करता हूँ मैं

मैं प्रेम करता हूँ

अपनी अंतहीन उदासियों से

अपनी घुप्प चुप्पियों से

अपने हर उस ख़ामोश लम्हे से

जिसमें मैं ख़ुद को भूल गया हूँ

सिर्फ़ तुम्हें याद रखने के लिए|

मैं प्रेम करता हूँ

प्रेम की परिभाषा से परे

तुम्हारे समयातीत एहसास को

अक्सर बेख़बर हो पढ़ता हूँ

तुम्हारी उदास मुस्कराहटों को

हथेलियों पर थामे हुए तुम्हारे

आँसुओं में देखता हूँ

भावों का समंदर

और डूब जाता हूँ

अपने अंदर ही|

मैं प्रेम करता हूँ

अपने उन भावों को व्यक्त करने के लिए

जो तुम्हें

कभी अर्पित ही नहीं हो पाए

अव्यक्त भावों की गठरी लिए

भटकता ही रहता हूँ

शब्दों के लिए

और निःशब्द हो जाता हूँ

तुम्हारे सामने|

मैं प्रेम करता हूँ

यह जानते हुए भी कि

ज़िंदगी की ज़िम्मेदारियों के बीच

अक्सर बेबस हो जाता है प्रेम

तुम्हारी ख़ामोश नज़रों में रहकर भी

अजनबी बने रहने के लिए

मैं तुमसे प्रेम करता हूँ|

मैं प्रेम करता हूँ

दुनिया की तमाम कोशिशों के बाद भी

दिल से मिटा नहीं पाने वाली

प्रेम की उस ताक़त को बचाए रखने के लिए

जिसकी वज़ह से

वक़्त के घनघोर अँधेरे में भी

पत्थर दिल होने से बच पाया हूँ मैं|

मैं प्रेम करता हूँ

अपने अटूट विश्वास को बचाए रखने के लिए

ताकि प्रेम के पतझड़ में भी

बचा रहे प्रेम

संबंधों की मरुभूमि में भी

पनपता रहे प्रेम

प्रेम का पनपना ही

दुनिया का

संवेदनशील हो जाना है

तुम्हारी ही तरह|

मैं प्रेम करता हूँ

प्रेम के सम्मान को

प्रेम के अपने प्रतिदान को

प्रेम की निजता को

अपनी अपूर्णता के साथ भी

तुम्हारी पूर्णता के लिए|

मैं प्रेम करता हूँ

प्रेम की आत्मशक्ति से

प्रेम को प्रतिष्ठित करने के लिए

प्रेम को प्रेम की तरह समझने के लिए|

मैं तुमसे प्रेम करता हूँ

प्रेम का इज़हार किए बिना ही

आजीवन प्रेम का वरदान पाने के लिए

मैं तुमसे प्रेम करता हूँ

प्रेम की पूर्ण अनुभूति के साथ

अपने निश्चल प्रेम को

अपने अंतरतम में प्रणाम करता हूँ

मैं तुमसे प्रेम करता हूँ|

 

बोझिल पंख

पिंजरे के पक्षी
पिंजरे की सलाख़ों से
आकाश की असीम संभावनाओं को
कभी देख ही नहीं पाते
और असमय ही खो देते हैं
साहस ऊँची उड़ानों का
बिना पंख फैलाए ही|

पिंजरे के पक्षी
चारों पहर ख़ौफ़ में जीते हैं
ख़ौफ़ से ही सीखते हैं
हर ज़ुल्म सहन कर लेना
चुपचाप दाना चुगना और
पंख समेट सो जाना|

पिंजरे के पक्षी
सहम जाते हैं
ऊँची उड़ानों का
सपना देखने पर
और अपनी चीख से
पिंजरे के ख़िलाफ़ उठने वाली
हर एक आवाज़ को दबा देते हैं|

पिंजरे के पक्षी
ग़ुलाम मानसिकता के हो जाते हैं
आकाश की हर एक आज़ादी को
हर एक सच्चाई को
जबरन झूठा ठहराते हैं
अपनी जान की कीमत देकर भी|

पिंजरे के पक्षी
बेबस हो जाते हैं
पिंजरे से कभी उड़ना नहीं चाहते
मुट्ठी भर दाने के लिए
खेत-खलिहानों में भटकना नहीं चाहते
मिहनत कर घोंसला बनाना नहीं चाहते
पिंजरे के पक्षी
खो चुके साहस के साथ
खो देना चाहते हैं
अपने बोझिल पंखों को भी|

पिंजरे के पक्षी
अपनी कातर आँखों से देखते हैं
दूर आकाश की ओर
और दम तोड़ देते हैं
अपनी ताक़त को जाने बिना ही
आकाश की असीम
ऊँचाइयों को छुए बिना ही
गुमनाम मौत के शिकार हो जाते हैं|

 

मनुष्यत्व

ऐसे समय में
जी रहे हैं हम सभी
जहाँ सभी अच्छी चीजों को
वक़्त से पहले
विदा किया जाना है|

पक्षियों को तोड़कर घोंसला
आसमान में
विलीन हो जाना है|

संबंधों के पेड़ को
उखड़ जाना है
वक़्त की आँधी में|

सूर्य को अस्त
हो जाना है
अँधेरे से डरकर|

रास्तों को खो जाना है
मंज़िल से पहले ही|

गिद्धों को
लाश की राजनीति
करते देखना है
या ख़ुद गिद्ध हो जाना है|

मासूमों के हाथ में
किताब की जगह
थमा दिया जाना है
बंदूक|

गुनहगार की तरह
जीना है
स्त्री को
बेवज़ह|

भुला दिया जाना है
इतिहास को
गौरव को
आत्म उत्थान की
हर गाथा को|

खो देना है पीढ़ियों को
बूढ़ी आँखों में

अपनों के इंतज़ार के हर सपने को
अमूल्य धरोहर को|

विदा हो जाना है
संस्कार को
प्रेम को
परिहास को
क्षमा शक्ति कि
संस्कृति को
संवेदना को
कविता को
और
कवि को भी|

भावना से
वस्तु बनते
कठोर युग में
जगह ही नहीं
बची है अब
मनुष्यत्व के लिए|

 

माँ का अकेलापन

भीड़ भरे शहर में
अकेली हूँ मैं
चीखती हूँ
भयावह सन्नाटे में
और लौट आती है
मेरी आवाज़
तुम तक नहीं पहुँचती|

तुम व्यस्त हो
या फिर भूल गए मुझे
तुम्हें नहीं है मेरी सुध
या फिर ज़रूरत नहीं रही
अब मैं|

कैसे कहूँ कि
ज़िंदगी के भयावह अँधेरे का
उजाला हो तुम
मेरी ज़िंदगी का

एकमात्र सहारा हो तुम
समय की धारा में
बची हूँ अब ठूँठ मात्र
चिता के ढेर पर
राख होने से पहले
तुमसे मिलने को
आतुर हूँ मैं|

अंतरतम में

ढूँढ़ती हूँ प्रकाश
और अँधेरे में डूब जाती हूँ
हर बार जुड़ती हूँ ख़ुद से
और टूट जाती हूँ
तुम बिन

जीने की कोशिश में
हर बार बिखर जाती हूँ|

अबकी आना
तो ले आना
ढेर सारा वक़्त
वक़्त मेरी
हर अनकही बातों के लिए
हर उस त्योहार के लिए
जो बीत गया है
तुम बिन|


अबकी आना तो
आँसू छोड़ आना
पत्थर हो गई हूँ मैं
मुझे देख मत रोना
अबकी आना तो फिर
हमेशा के लिए चले जाना|


विदा कर जाना
मुझे किसी घाट पर
मेरी मुट्ठी भर राख पर
आख़िरी बार
"माँ" लिख देना|


अमर हो जाऊँ
तुम्हारे शब्दों से
और बना रहे
तुम्हारा स्पर्श भी
इतनी सी ख़्वाहिश है कि
जाने से पहले
मेरी स्मृतियों को भी
कहीं दफ़न कर जाना
अबकी बार आना
तो फिर हमेशा के लिए
चले जाना

मेरे बेटे |
(बेटे के इंतज़ार में कंकाल बन चुकी माँ को समर्पित)

 

शब्द

औपचारिक होते समय में
औपचारिक हो गए हैं
शब्द भी
शब्द खो गए हैं
अतिशय शोर में
शब्दों ने खो दिया है
अपना विश्वास भी
शब्द अपने अर्थ के ही
मोहताज़ हो गए हैं|

औपचारिक होते समय में
शब्द
कठोर हो गए हैं
बिकाऊ हो गए हैं
लुभावने नारे में
तब्दील हो गए हैं
चौक-चौराहों पर इश्तहार बन
बाज़ार की वस्तु बन गए हैं|


शब्दों ने

चीख को भी
सीख लिया है
सलीके से बोलना
शब्द
अमीरों के तीमारदार हो गए हैं|

औपचारिक होते समय में
शब्द
निरर्थक पड़े हैं
किताबों में

कविताओं में

कहानियों में
शब्द
दम तोड़ रहे हैं
इतिहास के

बंद पन्नों में
सार्थक अर्थ की तलाश में|

औपचारिक होते समय में
शब्दों ने

शब्दों से
रिश्ता रखना छोड़ दिया है|


शब्द सिमटने लगे हैं
भाषाओं में

गीत-संगीत में
लोक संस्कृति में
शब्द

अब कामचलाऊ हो गए हैं
चंद अल्फ़ाज़ों में क़ैद हो गए हैं|

औपचारिक होते समय में
शब्दों ने

धारण कर लिया है
अपना-अपना

बहुमुखी अर्थ|


शब्दों से आहत होने लगी हैं
भावनाएँ

परंपराएँ
शब्द

हथियार बन गए हैं
शब्द

राजनीति के शिकार हो गए हैं|

औपचारिक होते समय में
शब्दों के चकाचौंध में
वो शब्द भी सिमट गया है
जिससे पनपा है

प्रेम
जिससे पनपी है

मानवीयता
जिससे पनपी है

संवेदनशीलता|

औपचारिक होते समय में
बिके हुए शब्दों ने
ऐलान कर दिया है

अपनी बादशाहत
और विरोधी शब्दों को
बाहर कर दिया है

जबरन
अनौपचारिक ठहराकर|

 

आत्महंता

दिल में एक आग थी
जो अन्याय के ख़िलाफ़
मशाल बन जगाती थी मुझे

रात-रात भर जागता था
दुनिया को बदलने के सपने के साथ|

अपनी फटेहाली में

मैं पाता था
विचारों की अमीरी
अचंभित हो सुनता था
जल-जंगल-ज़मीन की
अन्यायपूर्ण कहानियाँ|


सोचता था कि विकास के वहशीपन में
कहीं खत्म न हो जाए यह दुनिया
अपराध में आकंठ डूबे हाथों से
कहीं बेमौत न मारी जाए मानवता
ग़रीब

अनुत्तरित न रह जाएँ
फिर अपने दुर्भाग्य की तरह|

विचारधाराओं की लड़ाई में
हारता हुआ देखता था

ग़रीबी को तो
खौलता हुआ पाता था अपने लहू को
देखता रहता था

ग़रीबी के नाम पर
मसीहा बने चेहरों को बिकते हुए
और एक नई सुबह की तलाश में

अँधेरे में दर-दर भटकता रहता था|

अब जबकि उस मुक़ाम पर हूँ मैं
कि मेरी ही मुट्ठी में बंद है

उजाला
मैं ख़ामोशी से देखता हूँ

अँधेरे को
अपनी चौखट पर दम तोड़ते हुए|


सौदा करता रहता हूँ

सच का झूठ के हाथों
और सच कहूँ तो

अन्याय की बुनियाद पर ही
गढ़ रहा हूँ मैं अपने सपनों की इमारत |


अतीत अब मेरे लिए

उस सीढ़ी की तरह है
जो मंज़िल पर पहुँचाकर

निरर्थक हो गई है
अन्याय के ख़िलाफ़ आग उगलने वाली
मेरी आवाज़

अब जी-हुज़ूरी की ग़ुलाम हो गई है |

अपने तमाम उसूलों से समझौता कर
हासिल कर लिया है

मैंने चमकता चेहरा
जबकि जानता हूँ मैं कि
आत्महंता हूँ

मैं अपनी ही ज़मीर का|

 

प्रेम-पत्र

प्रेम-पत्र लिखते हुए

जब ढूँढ़ रहा होता हूँ

दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत शब्द

तब तुम्हारे नाम से ज़्यादा ख़ूबसूरत शब्द

ज़ेहन में नहीं आता|

तुम्हारी आँखों से ज़्यादा ख़ूबसूरत तो

'ख़ूबसूरत' शब्द भी नहीं है

और यह ख़याल कि

प्रेम करती हो मुझे

मैं ख़ुद के ही प्रेम में डूब जाता हूँ|

तब सोचता हूँ

क्या लिखूँ प्रेम-पत्र में कि

तुम मेरे अंतरतम का प्रकाश हो

मौन अभिव्यंजना हो प्राणों की

मेरे तसव्वुर की नव प्रेरणा हो

संवेदना हो मेरी ज़िंदगी की|

जबकि जानता हूँ कि

शब्दातीत हो तुम

प्रेम का शाश्वत संगीत हो तुम

सृष्टि की सारी उपमा से परे हो तुम|

मेरे मीत

मेरे लिए

तुम प्रेम-पत्र की पवित्र आयत हो

तुम्हें बार-बार पढ़ना

ख़ुद में ही तुम्हें ढूँढ़ना है

और ख़ुद में ख़ुदा की तरह

तुम्हारी इबादत करते रहना है|

 

जे.एन.यू में प्रेम

जे.एन.यू में प्रेम

या प्रेम में जे.एन.यू

मेरे लिए

एक ही शब्द हैं

एक ही भाव हैं

या यूँ कहूँ तो

जे.एन.यू की

पगडंडियों पर

पाँव के

दो निशान हैं

जिसमें एक मैं हूँ

एक तुम हो|

वो जो जे.एन.यू की पगडंडियों पर

हमारे साथ-साथ चलते रहते हैं

पेड़-पौधे

जिसे किसी अँधेरी रात में

पाँव फिसलने पर

थाम कर संभल जाते हैं हम

तुम मेरे लिए

वो ही पौधा हो

जिसने थाम रखा है

मेरी साँसों को अब भी|

वो जो जे.एन.यू की लाइब्रेरी में

किताबें ढूँढ़ते-ढूँढ़ते

अचानक एक किताब मिल जाती है न

जिसका एक-एक अक्षर

उतरने लगता है ज़ेहन में

जिसे पढ़ने लगते हैं हम ख़यालों में भी

तुम मेरे लिए वो ही किताब हो

जो जीवन को नए अर्थ दे रही हो अब भी|

जे.एन.यू के गंगा ढाबा पर

चाय की चुस्कियाँ लेते हुए

वो जो निग़ाह टिकी होती है न

रास्ते पर

और तुम्हारे आने से अचानक

रौनक लगने लगता है ढाबा

तुम मेरे जीवन की वो ही गंगा ढाबा हो

जिसकी स्मृतियों में जीकर

खुद को पुनर्जीवित करता रहता हूँ मैं|

वो जो जे.एन.यू की गर्मियों में

बेफ़िक्र लहलहाता रहता है न

अमलतास

जैसे कि उसे पता हो

धूप को छाँव बनने में देर नहीं लगती

उसी अमलतास की तरह

लहलहा रही हो तुम अब भी

मेरी ज़िंदगी की धूप में

ज़िंदगी को छाँव देने के लिए|

जे.एन.यू के पार्थ सारथी रॉक से

जब कभी भी देखता हूँ

दूर तक फैले हुए जे.एन.यू को

तो जे.एन.यू

तुम्हारे बिखरे बालों की तरह नजर आता है

जिसे अपलक देखना

संपूर्ण सृष्टि सौंदर्य को आत्मसात कर लेना है

मेरे लिए|

तुम मेरे लिए

जे.एन.यू की वो बेफ़िक्र शाम हो

जो अहले सुबह तक साथ निभाती थी

और यह भरोसा दिलाती थी कि

ज़िंदगी का साथ

सिर्फ़ उजाले का साथ नहीं होता|

मेरे लिए तुम अब भी

जे.एन.यू के

खिलखिलाते फूलों की लालिमा हो

और उस पर पसरा हुआ बेसब्र धूप हूँ मैं|

सुना था मैंने कि

कभी बौद्ध वृक्ष का एक पौधा लाकर

जे.एन.यू की धरती में रोप दिया गया था

और उसकी जड़े फैलती चली गईं थीं

जे.एन.यू के चट्टानों पर

तुम मेरे लिए वो ही बौद्ध वृक्ष हो

जिसके विस्तार से

जीवन में अनंत गहराई पाता हूँ मैं|

जे.एन.यू से विदा होते वक़्त

जे.एन.यू से साथ चली आई स्मृतियों को

सहेज रखा है मैंने ऐसे

जैसे पृथ्वी सहेज लेती है बीज

फिर-फिर जन्म देने के लिए पौधों को

वैसे ही मुझमें भी पनपता रहता है

तुम्हारा प्रेम

जीवन के बंजर समय में भी|

 

कविता

नहीं लिख रहा हूँ
कोई कविता
नहीं व्यक्त कर रहा हूँ
कोई विचार
जैसे कि विचारों ने
फ़ैसला कर लिया हो
कि अब नहीं होना है
किसी के ख़िलाफ़|

वक़्त के बहरेपन में
मुझमें मर रहीं हैं
कविताएँ
और एक कवि में
कविता का मर जाना
हमारे समय का
सबसे ख़ौफ़नाक सच है|


और सच यह भी है कि
ज़ुबान की ख़रीद-फ़रोख़्त में
जो कवि बच गए हैं
वो ही बहिष्कृत हैं
कवि समाज से भी|


अधीर समय ने
एक कवि को
सुनने का धैर्य खो दिया है
धैर्य से सुने जाने लगे हैं
अकवि|

अब जबकि
अनसुने समय में बोलना
ख़ुद को बेवज़ह साबित कर देना है
बोलने की
कोई मुकम्मल वज़ह तलाश रहा हूँ मैं
अँधेरे में
अँधेरे के ख़िलाफ़ होने के
नए मायने तलाश रहा हूँ मैं|

 

एक अकेली स्त्री होना

एक अकेली स्त्री होना

हैवानियत भरी नज़रों से
ख़ुद को बचाने के लिए
अपनी अंतरात्मा को मार देना है
गूँगी आवाज़ में चीखना
और बाहर चुप हो जाना है|

एक अकेली स्त्री होना
वीभत्स मानसिकता से
ख़ुद को महफ़ूज़ बनाए रखने का
ख़्वाब बचाए रखना है
अपनी बेगुनाही के बाद भी
बेशर्म सवालों से
शर्मसार होते रहना है|

एक अकेली स्त्री होना
दरिंदगी से गुजरने के बाद भी
दरिंदों के हमदर्द धृतराष्ट्रों से
न्याय की उम्मीद बचाए रखना है|

एक अकेली स्त्री होना
बेवज़ह की बंदिशों में बंध जाना है
मौत के मुँह में समा चुकी
मासूमियत को
बेबस आँखों से देखते रह जाना है|

एक अकेली स्त्री होना
आसमान की ऊँचाई को छूने की चाहत लिए
बंद खिड़कियों में दम घुट जाना है|

एक अकेली स्त्री होना
समाज की नज़र में
नुमाइश की वस्तु बन जाना है
भद्दी गालियों,चुटकुलों में तब्दील हो
उपहास का पात्र बन जाना है|

एक अकेली स्त्री होना
बेख़ौफ़ हाथों के लिए
खिलौना बन जाना है
अधिकार,शोषण,अत्याचार के
बड़े-बड़े भाषणों के बाद
मनोरंजन का साधन बन जाना है|

एक अकेली स्त्री होना
अंतहीन समझौता हो जाना है
वक़्त को कसकर मुट्ठी में दबाए हुए
ज़िंदगी के कठोर फैसले से गुज़र जाना है|

एक अकेली स्त्री होना
अंततः सीता हो जाना है|

 

बुज़दिली

बेख़ौफ़ हाथों द्वारा

नंगा कर देने से
स्त्री नहीं
सोच नंगी हो जाती है
समाज की|


वो व्यवस्था नंगी हो जाती है
जिसने शपथ ली है
सुशासन की|

वो मंशा

नंगी हो जाती है

जो फँसी हैं

बेवज़ह के कुतर्कों में|


वो आँखें नंगी हो जाती हैं

जो स्वाद की तरह परोसती हैं

ख़बरों को|


वो मर्यादा नंगी हो जाती है

जिसके आवरण में

अनावृत हो गई है स्त्री|

वो स्त्री नंगी हो जाती है
जिसने आँख पर

पट्टी बाँध रखी है

भरी अदालत में|

वो शिक्षा नंगी हो जाती है
जो सिखाती है

'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता'|

वो नियत नंगी हो जाती है

जो हैवानियत से भरी है

इबादत के बाद भी|

हम सब नंगे हो जाते हैं
अपनी-अपनी बुज़दिली में|

 

एक कवि का जाना

एक कवि का जाना
सिर्फ़ कविता का

अंत नहीं होता
अंत होता है
उस आवाज़ का भी
जो अभिव्यक्त करती है

सृष्टि को|


अंत होता है

उस दृष्टि का भी
जो प्रकृति में देखती है

प्रेम|


अंत होता है

उन संवेदनाओं का भी
जिनके बिना

हृदयहीन हो जाती है
दुनिया|

एक कवि का जाना
हमारे सपनों का

मर जाना है|


उदास रातों में

चाँद का खो जाना है
एक कवि का जाना

आँखों की रोशनी का
असमय छिन जाना है|

 

आईना

पता नहीं लोगों की ज़िंदगी कि
क्या कहानी होती है
मुझे तो अपनी अस्मत
हर रात लुटानी होती है|

कभी जाना ही नहीं मैंने
मुहब्बत और दिल का रिश्ता
मुझे तो उदासियों के साथ ही
ज़िंदगी बितानी होती है|

बेवज़ह थोड़े से ज़ख़्म से
कराहते हैं लोग
मेरे शरीर पर तो
हर एक शख़्स की निशानी होती है|

लोग भी उलझ जाते हैं
मुहब्बत की बातों में
मुहब्बत में भला क्या अब
कोई मीरा कृष्ण की दीवानी होती है|

ज़िंदगी से मर चुके
लोगों की क़ब्रगाह हूँ मैं
और तुम पूछते हो
मेरी कोई जवानी होती है|

मैं जानती हूँ
पेट की आग और औरत की हक़ीक़त
तुम सोचते हो
हर औरत की अलग कहानी होती है|

गुमनाम अँधेरे में
इस क़दर क़ैद हूँ मैं
कि मुझे हर रात अपनी
मय्यत ख़ुद सजानी होती है|

मत पूछो
मेरे दर्दे-दिल का हाल तुम
तुम्हारी ख़ामोशी की वज़ह से ही
एक औरत की सरेआम नीलामी होती है|

कैसे कहूँ कि
तुम समझ लोगे मेरे जज़्बात
मुझे अपनी आँखों में
हर शख़्स की पहचान छुपानी होती है|

मत छेड़ो मेरे ज़ख़्मों को
अब रहने भी दो मुझे तन्हा
हमदर्दी दिखाने वालों पर भी
मुझे अब हैरानी होती है|

 

नन्हीं सी चिड़िया

 

एक नन्हीं सी चिड़िया थी

तुम सी

डरती सी

घबराती सी

एक नन्हीं सी चिड़िया थी|


काँप जाते थे उसके भी पाँव

जैसे सिहर जाती हो तुम

अनहोनी पर|


पर रुकते कहाँ थे

नन्हीं चिड़िया के क़दम

जैसे तुम चलती रहती हो

अनथक|


कोई खास वज़ह थी

जीने की

नन्हीं चिड़िया के जीवन में

तुम्हारी ही तरह|


तुम्हारी ही तरह

दर्द से गहरा रिश्ता था

नन्हीं चिड़िया का भी|


घायल थी नन्हीं चिड़िया

पर लड़खड़ाकर चलती थी

तुम्हारी ही तरह

अपने वजूद के लिए|


घनघोर आँधियों में भी

नन्हीं चिड़िया को

हौसला देते थे

उसके अपने ही पंख

ऊँची उड़ानों का

तुम्हारी ही तरह|

तुम्हारी ही तरह

नन्हीं चिड़िया

देख रही है जग को

अपनी कातर आँखों से

और हँस रही है जग पर

जैसे जग हँसता है उस पर|

 

वक़्त लगता है

 

सफ़र तय करने में

वक़्त लगता है

चाहे यह सफ़र ज़िंदगी का हो

या संबंधों का

उसे समझने में भी

वक़्त लगता है|

जो दूरियाँ मिटाने लगते हैं

स्लेट पर लिखे शब्दों की तरह

उन पर भरोसा करने में भी

वक़्त लगता है|

जिन संबंधों को छोड़ आए हों

आप वक़्त के हाथों

उस वक़्त को बदलने में भी

वक़्त लगता है|

जो भी साँसें हैं ज़िंदगी में

सब वक़्त का ही तो है

और यह समझने में भी

वक़्त लगता है|

 

रिश्ते नहीं मरते

 

रिश्ते नहीं मरते

मरता है वक़्त

रिश्ते दिल के किसी कोने में

ज़िंदा रहते हैं

अपनी कुलबुलाहट के साथ

बेहतर कल की आशा में|

रिश्ते पेड़ की डाल की तरह नहीं

जो टूट गए तो कभी जुड़ न पाएँ

रिश्ते बदलते वक़्त के साथ

फिर उगते हैं

जैसे उग आती हैं नई कोंपलें|

दिल से जो उतर चुके हैं

वे ही सबसे ज़्यादा याद आते हैं

हर नए चेहरे में आप ढूँढ़ते हैं

वही पुराना चेहरा|

कैसे कहें कि रिश्ते मरते हैं

रिश्ते लौट-लौट कर

आँसू बन उभरते हैं

माँ के आँसू में होते हैं

छोड़ गए बच्चे

पिता के आँसू में होते हैं

बिछड़े भाई

प्रेमी के आँसू में होती है

प्रेमिका|

न जीव,न जंतु

कोई मुक्त नहीं है रिश्तों से

चिड़िया सेती ही है अंडे को

ताकि जीवित हो सकें बच्चे

एक दिन उड़ान भर छोड़ जाने के लिए|

रिश्ते नहीं मरते

मरता है वक़्त

और नए वक़्त में

फिर-फिर जी जाते हैं

रिश्ते

नए-नए रूपों में

अनवरत|

 

ताकि जलती रहे चिता

 

मैं लिखना नहीं चाहता

वो अतीत

जो गुमसुम है

दिल के किसी कोने में

न जाने कब से

जो लेना चाहता है आकार

उसे छुपाए रखना चाहता हूँ मैं|

अतीत के सपने

अतीत के संबंध

वर्तमान में खो चुके हैं

वजूद अपना|

बावजूद इसके

अतीत स्वयं को

अभिव्यक्त करना चाहता है

वह सब कुछ कहना चाहता है

जो अनकही रह गई है

दिल में|

कहने-न कहने के इस द्वंद्व में

कहीं खो गया हूँ मैं भी

या कि तीर गया है

समय मुझमें|

जीवन के इस अर्थ में

खो गए हैं शब्द भी

इसलिए भी नहीं लिख पाता मैं

चाहकर भी|

गुमसुम सवालों को

रखता हूँ अनुत्तरित

ताकि जलती रहे

चिता

दिल में यूँ हीं|

 

अछूत

सदियों से

रात के स्याह में

गुज़रते हुए

उसने

कभी सोचा ही नहीं कि

दामन सफ़ेद है|

उसे लगा कि

दामन पर

पोत दी गई है

काली रात

और अँधेरे में ही

चलना है उसे

जब तक मिट नहीं जाता

शरीर|

उसे डर लगता है

उजाले से

जिसमें छुपे होते हैं

ख़ौफ़नाक चेहरे

नक़ाब पहने इंसानियत का

जो लूटते हैं

तन-मन-धन सब कुछ

और परछाई

छू जाने पर देते हैं

सरेआम गालियाँ

बरसाते हैं

लात-घूँसा

अधमरा हो जाने तक|

वे इंसान नहीं

अब भी

अछूत कहे जाते हैं

और

तन-मन-धन

लूटने के लिए ही

सभ्य कहे जाने वाले

हाथों द्वारा

छुए जाते हैं|

 

अपाहिज मानसिकता

माँ की कोख में

महफ़ूज़ रहती है

पलती है

अबूझ पहेली की तरह

और जीवन

उसे देता है

गुलामी की

अंतहीन ज़ंजीर|

अपाहिज मानसिकता

स्त्री को

पशु

बना देती है

जो नहीं जानती

शोषण

नहीं जानती

अत्याचार

जानती है

सिर्फ़

बिछना रात को

और सुबह

खेत हो जाना|

लहलहाती

फसलों की तरह

काट ली जाती हैं

स्त्रियाँ

और उपयोग के बाद

फेंक दी जाती हैं

जूठे पत्तल की तरह

कूड़ेदान में|

मर्यादा

के नाम पर

अब भी निर्वासित होती हैं

स्त्रियाँ

घर से

समाज से|


समाज की कोख से

जबरन गिराई जाती हैं

स्त्रियाँ

अनचाहे भय में

और

भूख में

खाई जाती हैं

स्त्रियाँ

चटपटे

व्यंजन की तरह|

सूखते तालाब

की तरह हैं

स्त्रियाँ

जो याद की जाती हैं

सभा-संगोष्ठियों में

बड़ी-बड़ी बहसों में

और

चाय की प्याली के साथ

भुला दी जाती हैं

सब अच्छी-अच्छी

बातों की तरह|

सब तुम्हें देता हूँ

मन का भार-अभार

सब तुम्हें देता हूँ|

तृप्त-अतृप्त जीवन के

हर साँस में साथ रहने के

तुम्हारे एहसास को

न भूल पाने का विश्वास

तुम्हें देता हूँ|

कही-अनकही बातों के लिए

ह्रदय से आभार

तुम्हें देता हूँ|

जो कुछ दे न सका तुम्हें

उसकी होने की दुआ

तुम्हें देता हूँ|

हर जन्म में साथ

देने के लिए

दिल से आवाज़

तुम्हें देता हूँ|

 

अपने-अपने हिस्से की धूप

तुमने सोचा कहाँ था कभी

कि मुझे भूल जाने के लिए

तुम्हें छोड़नी होगी अपनी हँसी

और उदास चेहरे पर लानी होगी

मुस्कराहट|

तुमने चाहा कहाँ था कभी

कि अँधेरे में सिमट जाए चाँद

और वक़्त ख़ामोश हो जाए

अपने दिल में सवाल करते-करते|

तुमने देखा कहाँ था कभी

वो दिन जो रात बनकर

सुबह का बेबस इंतज़ार कराती है|

तुमने साथ दिया था कभी

जब साथ अपने ख़ुद भी नहीं था मैं

और आज तुम सामने होकर भी

एक अजनबी हो

यह जानते हुए कि

एक ही रास्ते पर

चलना है हमें

अपने-अपने हिस्से की धूप लेकर|

 

जब तुम लिख रहे थे कविता

जब तुम लिख रहे थे कविता

आत्महत्या कर रहे थे किसान

बलात्कार हो रहे थे बहू-बेटियों के

कत्लेआम हो रहे थे धर्म के नाम पर

पर तुम्हारी कविताओं में नहीं था कोई दर्द|

तुम्हारी कविताएँ ढूँढ़ रही थीं

सत्ता के गलियारे

पा रहे थे तुम ढेरों सम्मान

तुम्हारी कविताएँ

सत्ता तंत्र की आकांक्षाएँ हो गई थीं

जिसे न चाहते हुए भी तुम लिख रहे थे

अपनी ही आत्मा के विरुद्ध जी रहे थे

जिससे कि तुम पा सको वह सब

जो आज तक अभाव था|

बिकी हुई लेखनी से गा रहे थे तुम

बिके हुए गीत

अर्थहीन हो गए थे तुम

और तुम्हारी कविताएँ

सार्थक होने की संभावना के साथ

निरर्थक हो गई थीं|

और एक दिन बदलते वक़्त के साथ

बड़ी बेआबरू होकर फेंक दिए गए थे तुम

जहाँ से चलना शुरू किया था तुमने

वहीँ कहीं धकेल दिए गए थे तुम|

तुमने जो लिखना चाहा

तुम लिख ही नहीं सके

सत्ता की धार में बह गईं

तुम्हारी अर्थहीन कविताएँ

मुर्दे की तरह

सागर होने की संभावना लिए

सिमट गए थे तुम

सड़े हुए पानी की तरह

पोखर में|

 

मैं छुपाता हूँ अपने भीतर प्यार

मैं छुपाता हूँ अपने भीतर प्यार

ताकि मैं

मैं रह सकूँ

और तुम

तुम|

मैं छुपाता हूँ अपने भीतर प्यार

ताकि ज़िंदगी के जिस भी

रास्ते पर बढ़ें क़दम

तुम धरती की तरह रहो

और मैं आसमान की तरह

जुदा रहकर भी

साथ-साथ रह सकें हम|

मैं छुपाता हूँ अपने भीतर प्यार

ताकि हमारी भावनाएँ

ज़िंदगी के दो किनारों को छूती भी रहें

और समय की धारा में बहती भी रहें

अपनी पूर्ण पवित्रता के साथ|

मैं छुपाता हूँ अपने भीतर प्यार

ताकि कहे- अनकहे को

अपने दिल में दे सकूँ आवाज़

और तुम मेरी रगों में

बहती ही रहो सदानीरा बनकर|

मैं छुपाता हूँ अपने भीतर प्यार

ताकि घनघोर अँधेरे को

तुम्हारी चौखट का सूरज बना सकूँ

और आलोकित रहो

तुम सदा यूँ हीं|

 

अगर तुम मुझे अपना सको

शिखर पर पहुँच कर

कभी सोचा ही नहीं था

कि तुम्हें ही भूल जाना होगा|

तुम ही तो वो बुनियाद थी

जिसकी दहलीज़ के सहारे

बढ़ाया था मैंने

अपने सपने की ओर

पहला क़दम|

उस वक़्त सिर्फ़ तुम थी

और तुम्हारा

बेशुमार प्यार|

वक़्त के इस करवट में

जीवन के जिस शिखर पर

मैं हूँ वहाँ तुम्हारा होना

मेरा असफल हो जाना है|

सोचता हूँ

तुम मेरे जीवन की वह पौध हो

जिसकी जीवनमयी जड़ों को तोड़कर

मेरा शिखर पर होना

बेमानी है|

चाहता हूँ

लौट आऊँ शिखर से

तुम तलक

अगर तुम मुझे अपना सको

शिखर की आपाधापी से दूर

तुम मेरे जीवन को

नया जीवन दे सको|

 

हिंदी हूँ मैं

सदियों की सामासिक संस्कृति की शक्ति हूँ मैं
मानव जीवन की जीवंत अभिव्यक्ति हूँ मैं
समय की संवेदना का सारथी हूँ मैं
हिंदी हूँ मैं|

भाषिक परंपरा का गर्व एवं उत्थान हूँ मैं
बुद्ध का उपदेश,महावीर का ज्ञान हूँ मैं
धर्म-अध्यात्म,ज्ञान-विज्ञान हूँ मैं
हिंदी हूँ मैं|

शब्द संगीत,भाव प्राण हूँ मैं
नव प्रेरणा,नव गान हूँ मैं
सूर का कृष्ण,तुलसी का राम हूँ मैं
हिंदी हूँ मैं|

अंग्रेजी सत्ता की प्रतिकार,महात्मा गाँधी का विचार हूँ मैं
अमर शहीदों का अमर गीत,आज़ादी का नाम हूँ मैं

अमर सेनानियों की अभिलाषा का परिणाम हूँ मैं

हिंदी हूँ मैं|

आज़ाद भारत की आज़ाद आवाज़ हूँ मैं
ग़रीब-ग़ुरबा की ज़ुबान,वंचितों की ललकार हूँ मैं
रोजी-रोटी-रोजगार,भारत सरकार हूँ मैं
हिंदी हूँ मैं|

माँ की लोरी, किस्सा-कहानी,घर का अख़बार हूँ मैं
रीति-रिवाज,पर्व-त्योहार,परिवार का संस्कार हूँ मैं
गीत-संगीत की आत्मिक भाषा,प्रेम की परिभाषा हूँ मैं
हिंदी हूँ मैं|

भारत की वैश्विक पहचान,भारत का प्रेम-पैगाम हूँ मैं

जन-गण-मन का आत्म गौरव,आत्म सम्मान हूँ मैं

हिंद का अभिमान,हिंद-हिंदी-हिंदुस्तान हूँ मैं|
हिंदी हूँ मैं|


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में ओम प्रकाश की रचनाएँ